बल्लभगुरु आज्ञा भई, किया सरवा निज स्याम ।।
गऊघाट में ही सूरदासजी की भेंट श्री वल्लभचार्य से हुई। महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उनको श्रीनाथ मंदिर में कीर्तन करने का भार सौंप दिया। यहीं रहकर सूरदासजी भगवान् की कृपा के लीला पदों का गान करने लगे। वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथजी ने पुष्टि सम्प्रदाय में दीक्षित आठ भक्त कवियों की एक मंडली बनाई जो 'अष्ट छाप' कहलाई। सूरदासजी का निधन पारसौली ग्राम में सन् 1583 में हुआ।
रचनाएँ- महाकवि सूर द्वारा रचित तीन ग्रंथ ही प्राप्त हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) सूरसागर (2) सूरसारावली (3) साहित्य लहरी
भावपक्ष (अनुभूति पक्ष)- सूर का साहित्य रागानुराग भक्ति से ओत-प्रोत है। आपके साहित्य को अधोलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
विनय के पद, बाल माधुरी, रूप माधुरी, मुरली माधुरी, भ्रमर गीत।
सूरदासजी वात्सल्य रस के सम्राट कहे जाते हैं। भ्रमर गीत में वियोग श्रृंगार उच्च कोटि का बन पड़ा है।
कलापक्ष (अभिव्यक्ति पक्ष)- आपकी रचना ब्रजभाषा में हुई है। भाव-व्यंजना की सहज अभिव्यक्ति के कारण शब्दालंकार और अर्थालंकार का यत्र-तत्र सुंदर प्रयोग दर्शनीय है। शैली की दृष्टि से सूरदासजी ने गीतों में पद शैली को अपनाया है। कहा जाता है कि आपने सवा लाख पदों की रचना की थी, जिनमें से अब पचास-साठ हजार पद ही प्राप्त हैं।
साहित्य में स्थान - हिन्दी के कृष्णभक्त कवियों में महाकवि 'सूर' का सर्वोच्च स्थान है। आपके संबंध में प्रसिद्ध उक्तियाँ हैं-
- 1. सूर, सूर तुलसी ससि, उड़गन केशवदास ।
- 2. तत्व-तत्व सूरा कही, तुलसी कही अनूठी ।
- 3. किधा सूर को सर लगौ, किधी सूर की पीर। किधौं सूर कौ पद सुनौ, तन-मन धुनत सरीर ।
- 4. उत्तम पद कवि गंग के, उपमा को बलबीर । केशव अर्थ गंभीरता, सूर तीन गुनधीर ।
Post a Comment
0 Comments