जंजातियाँ
एवं संवैधानिक प्रावधान
(TRIBES AND CONSTITUTIONAL PROVISIONS)
आदि काल से ही
भारत विभिन्न धर्मों, मर्तो, सम्प्रदायों, संस्कृतियों, प्रजातियों, जातियों और जनजातियों की जन्मभूमि रहा है। इन
सभी ने यहाँ की सामाजिक व्यवस्था और संगठन के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका
निभायी है और उन्हें एक विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया है। जाति-प्रथा, जनजाति, ग्राम व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, कर्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त और संस्कार
भारतीय समाज के प्रमुख आधार हैं। जनजातियों के कल्याण के लिए भारतीय संविधान में
की गई व्यवस्थाओं एवं प्रावधानों का उल्लेख करने से पूर्व हम यहाँ यह देखने का
प्रयास करेंगे कि जनजाति किसे कहते हैं।
जनजाति (TRIBE)
जनजाति या
वन्यजाति को आदिम, आदिवासी, वनवासी, गिरिजन तथा अनुसूचित जनजाति, आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है। इन्हें
आदिम या आदिवासी (Primitive or Aboriginal) इसलिए कहा जाता है कि ये भारत के प्राचीनतम
निवासी माने जाते हैं और सम्भवतः भारत में द्रविड़ों के आगमन से पूर्व यहाँ ये ही
लोग निवास करते थे। बेरियर एल्विन भी इन्हें आदिम जाति के नाम से सम्बोधित
करते हैं। उन्होंने लिखा है, "आदिवासी भारतवर्ष
की वास्तविक स्वदेशी उपज है। जिनकी उपस्थिति में प्रत्येक व्यक्ति विदेशी है। ये
वे प्राचीन लोग हैं जिनके नैतिक अधिकार और दावे हजारों वर्ष पुराने हैं। वे सबसे
पहले यहाँ आये।" आदिवासियों के मसीहा ठक्कर बापा और भारतीय संविधान
निर्मात्री सभा के सदस्य श्री जयपाल सिंह ने भी इन्हें आदिवासी के नाम से सम्बोधित
किया है।
डॉ. घुरिये इन्हें भारत के आदिवासी नहीं मानते वरन् वे
इन्हें 'पिछड़े हिन्दू'
कहते हैं। उन्होंने
ऐतिहासिक प्रमाण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि अधिकांश जनजातियाँ हिन्दू
धर्म को मानती हैं। अतः वे हिन्दू समाज का ही अंग हैं। कुछ विद्वान इन्हें भाषा के आधार पर जनजातियाँ कहते हैं।
क्योंकि इनके द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ जनजाति भाषा की श्रेणी में आती हैं ।
भारतीय संविधान
में कुछ वर्गों को जो कि सामाजिक,
आर्थिक व राजनीतिक दृष्टि
से पिछड़े हुए हैं, के उत्थान और कल्याण के लिए विशेष प्रावधान
किये गये हैं। इसी आशय से जिन जनजातियों के नाम संविधान की अनुसूची में सम्मिलित
किये गये हैं, उन सभी को 'अनुसूचित जनजाति' के नाम से पुकारा
जाता है। जनजाति की ओर अधिक स्पष्ट व्याख्या करने के लिए हम यहाँ इसकी परिभाषा और
विशेषताओं पर विचार करेंगे। जनजाति का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Tribe)
जनजाति की
परिभाषा करते हुए गिलिन एवं गिलिन लिखते हैं, 'स्थानीय पूर्व-
शिक्षित (Pre-literate) समूहों के किसी भी संग्रह को जो एक सामान्य
क्षेत्र में रहता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और सामान्य संस्कृति
को प्रयोग में लाता हो एक जनजाति कहते हैं।
डॉ. रिवर्स के अनुसार, “एक जनजाति एक
सामाजिक समूह है जो सामान्य भाषा बोलता है तथा युद्ध आदि के समय एक होकर कार्य
करता है।
लिप्टन के अनुसार, “साधारण रूप में
जनजाति खानाबदोशी झुण्डों का एक समूह है जो एक भू-भाग पर रहता है तथा जो
सांस्कृतिक समानताओं, सतत सम्पर्कों तथा एक निश्चित सामाजिक हितों की
भावना के आधार पर एकता की भावना रखता हो।"
डॉ. मजूमदार के अनुसार, जनजाति या
वन्यजाति परिवारों या परिवारों के समूह का एक संकलन है जिसका एक सामान्य नाम होता
है, जिसके सदस्य एक सामान्य भू-भाग पर रहते एवं
सामान्य भाषा बोलते हैं जो विवाह,
व्यवसाय या पेशे के
सम्बन्ध में कुछ निषेधों का पालन करते हैं और जिन्होंने एक निश्चित और मूल्यांकित
परस्पर आदान-प्रदान की व्यवस्था का विकास किया है।"
इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि साधारणतः
प्रत्येक वन्यजाति या जनजाति का एक भौगोलिक क्षेत्र में ही निवास होता है। उसकी एक
सामान्य संस्कृति, भाषा, राजनीतिक संगठन
एव व्यवसाय होता है और एक जनजाति के सदस्य अन्तर्विवाह के नियमों का पालन करते
हैं।
जनजाति के लक्षण (Characteristics of
Tribe)
विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर हम जनजाति की
कुछ प्रमुख विशेषताओं या लक्षणों को निम्न प्रकार से दर्शा सकते हैं:
(1) कई परिवारों का समूह-एक जनजाति का निर्माण कई परिवारों के संकलन से
होता है। परिवार ही जनजाति समाज की मौलिक इकाई है। जनजाति परिवार का ही एक विस्तृत
रूप है।
(2) विशिष्ट नाम-प्रत्येक जनजाति का कोई न कोई एक विशिष्ट नाम
अवश्य होता है जिसके द्वारा वह जानी जाती है।
(3) एक निश्चित भू-भाग-प्रत्येक जनजाति एक निश्चित भू-भाग में निवास
करती है। डॉ. रिवर्स का मत है कि जनजाति के लिए निश्चित भू-क्षेत्र होना
आवश्यक नहीं है क्योंकि कई जनजातियाँ घुमक्कड़ जीवन व्यतीत करती हैं। किन्तु डॉ.
मजूमदार का मत है कि घुमक्कड़ जनजातियाँ भी एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में ही
घूमती हैं, सभी स्थानों पर नहीं । अतः प्रत्येक जनजाति का
निवास एक निश्चित भू-क्षेत्र में होता है।
(4) हम की भावना - एक भू-भाग में निवास करने के कारण एक जनजाति
के सदस्यों में 'सामुदायिक भावना' या 'हम की भावना' पायी जाती है।
इसी भावना के कारण वे परस्पर सहयोग एवं सहायता प्रदान करते हैं और संकट के समय
एकता का प्रदर्शन करते हैं।
(5) सामान्य भाषा - एक जनजाति की एक सामान्य भाषा होती है जिसका
प्रयोग सभी लोग करते हैं। अधिकांशतः जनजातियों की भाषा अलिखित है और उनमें साहित्य
का अभाव पाया जाता है। जनजाति भाषा का हस्तान्तरण प्रमुखतः मौखिक रूप से ही होता
है। वर्तमान समय में बाह्य लोगों के सम्पर्क के कारण कई जातियाँ मूल भाषा के
अतिरिक्त अन्य भाषाएँ भी बोलने लगी हैं।
(6) जनजाति अन्तर्विवाह - सामान्यतः सभी जनजातियाँ अपनी ही जनजाति में
विवाह करती हैं, अन्य जनजातियों से नहीं। किन्तु कुछ लड़ाकू
जनजातियाँ ऐसी भी हैं जो दूसरी जनजाति पर आक्रमण करती हैं, उनकी लड़कियों और स्त्रियों को उठा लाती हैं।
और उनसे विवाह रचाती हैं।
(7) एक राजनीतिक संगठन- प्रत्येक जनजाति का अपना एक राजनीतिक संगठन
होता है। वे अपना शासन स्वयं करते हैं। शासन-संचालन वंशानुगत राजा, मुखिया या वयोवृद्ध लोगों की समिति द्वारा किया
जाता है। इस रूप में प्रत्येक जनजाति एक राजनीतिक इकाई होती है। किन्तु इस विशेषता
का उल्लेख हम वर्तमान भारतीय सन्दर्भ में करें तो पायेंगे कि भारतीय जनजातियों का
अपना एक पृथक् एवं स्वतन्त्र राजनीतिक संगठन नहीं है वरन् सभी जनजातियाँ भारतीय
गणराज्य की सदस्य हैं और प्रत्येक भारतवासी इसका नागरिक है।
(8) संस्कृति-प्रत्येक जनजाति की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति
होती है। एक जनजाति के रीति-रिवाज,
प्रथाएँ, धार्मिक एवं जादुई विश्वास एवं क्रियाएँ
सामाजिक संगठन, नैतिकता, विश्वास और मूल्य
अन्य जनजातियों से भिन्न होते हैं। सांस्कृतिक आधार पर विभिन्न जनजातियों के बीच
भेद किया जा सकता है।
(9) अर्थव्यवस्था - सामान्यतः सभी जनजातियों की अर्थ-व्यवस्था
आजीविका स्तर की है जिसमें आत्मनिर्भरता अधिक पायी जाती है। उच्च स्तर की तकनीकी, श्रम विभाजन और विशेषीकरण तथा बाजार, व्यापार, मुद्रा, साख, उत्पादन और
विनिमय की जटिल व्यवस्था नहीं पायी जाती। सामान्यतः वस्तु विनिमय व्यापारिक
क्रियाओं का आधार होता है। आर्थिक सम्बन्ध अधिकांशतः नातेदारों एवं परिचित लोगों
तक ही सीमित होते हैं।
(10) नातेदारी का महत्व-जनजाति में नातेदारी को महत्व दिया जाता है।
जनजातीय लोग अपने राजनीतिक,
आर्थिक एवं सामाजिक
सम्बन्ध अपनी नातेदारी तक ही सीमित रखते हैं। कई बार तो नातेदारी का विस्तार
सम्पूर्ण जनजाति तक होता है।
(11) धर्म-प्रत्येक
जनजाति का अपना एक विशिष्ट धर्म भी होता है। इनके धर्म में प्रकृति पूजा, आत्मवाद और जीववाद की प्रधानता पायी जाती है।
ये लोग कई जादुई क्रियाएँ भी करते हैं।
(12) सामान्य
पूर्वज-कई जनजातियाँ अपनी उत्पत्ति एक सामान्य पूर्वज से मानती हैं। यह पूर्वज
वास्तविक और काल्पनिक भी हो सकता है।
भारत में जनजातियों की जनसंख्या
(POPULATION OF
TRIBES IN INDIA)
भारतीय संविधान
में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 258 बतायी गयी है जो 106 भाषाएँ बोलती हैं। 1941
में अनुसूचितयों जनजाति की जनसंख्या लगभग ढाई करोड़ थी। 1951 में इनकी जनसंख्या
लगभग 1 करोड़ 91 लाख रह गयी। इस कमी का कारण भारत का विभाजन है जिसके परिणामस्वरूप
कुछ जनजातीय क्षेत्र पाकिस्तान में चले गये। 1961 में जनजातियों की जनसंख्या 2
करोड़ 99 लाख थी। 1981 में यह 5.16 करोड़ हो गयी। 1991 की जनगणना के अनुसार इनकी
जनसंख्या 8.06 करोड़ है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत के विभिन्न प्रान्तों में
असमानता पायी जाती है। मध्य प्रदेश में इनकी जनसंख्या सभी प्रान्तों से अधिक है।
उसके बाद उड़ीसा, बिहार, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिमी बंगाल, आन्ध्र प्रदेश
तथा आसाम आदि राज्य आते हैं। उत्तर प्रदेश, केरल एवं
तमिलनाडु में इनकी संख्या कम है।
छत्तीसगढ़
में जनजातीय जनसंख्या
(TRIBAL
POPULATION IN CHHATTISGARH)
1981 की जनगणना
आँकड़ों से स्पष्ट है कि भारत में मध्य प्रदेश ही ऐसा प्रान्त है जहाँ जनजातियों
की संख्या 1,19,87,031 है जो कि अन्य प्रान्तों से सर्वाधिक है
तथा यह मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या का लगभग 23 प्रतिशत भाग है। अब यह जनसंख्या
बढ़ कर करीब 1.4 करोड़ हो गयी है। मध्य प्रदेश में 56 जनजातियाँ निवास करती हैं।
कई क्षेत्र तो ऐसे हैं जहाँ की जनसंख्या, भाषा, रीति-रिवाज, खान-पान एवं
वेश-भूषा पूरी तरह से जनजातीय है। मध्य प्रदेश में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जैसे
अबुझझाइ, बैगाचक तथा पातालकोट जहाँ के आदिवासी अभी भी
आधुनिक सभ्यता के सम्पर्क से वंचित हैं। छत्तीसगढ़ के सभी भागों में जनजातियाँ थोड़ी-बहुत मात्रा
में निवास करती हैं किन्तु सरगुजा,
बिलासपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा, सुकमा, बीजापुर, नारायणपुर, कांकेर, कोंडागाँव, सूरजपुर, जशपुर, रायगढ़ और कोरिया आदि जिलों में इनकी जनसंख्या अधिक है। छत्तीसगढ़
की जनजातियों में
सर्वाधिक जनसंख्या गोंड जनजाति की है, उसके बाद भील आते
हैं। कुछ अन्य जनजातियाँ इस प्रकार हैं: अगरिया, आंध, बैगा, मैना, मुरिया, भत्तरा, भिलाला, भुंजिया, विंझवार, बनवा, गदावा, हलवा, कमाट, कॅवर, कोरकू, खरिया, खैरवाट, कोलयादहाइत, खोंड, माझी, मंझवार, मीना, मोनिया, मुण्डा, नगेसिया, नट, ओराँव, परधान,बहेलिया,परजा, सहरिया, सोर, विघाट तथा कीर,आदि।
जनजातियाँ
और संवैधानिक व्यवस्थाएँ
(TRIBES AND CONSTITUTIONAL PROVISIONS)
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्वाधीन भारत
के संविधान में जनजातियों एवं पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान रखे
गये हैं। भारतीय संविधान देश के सभी नागरिकों के लिए आर्थिक, सामाजिक एवं
राजनीतिक न्याय, विचार
अभिव्यक्ति, विश्वास, मान्यता एवं
धर्म की स्वतन्त्रता और प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता का आश्वासन देता है। संविधान
में मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है जो नागरिकों को यह विश्वास दिलाते हैं कि
धर्म, वर्ग, लिंग, जाति, प्रजाति एवं
जन्म के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं बरता जायेगा। इससे जनजातियों
के प्रति अब तक बरते गये भेदभाव की समाप्ति होती है।
संविधान में
नीति-निर्देशक तत्वों का उल्लेख किया गया है जिनमें कहा गया है कि राज्य कमजोर
वर्ग के लोगों विशेषकर अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के शैक्षणिक व आर्थिक हितों
को बढ़ावा देगा तथा उन्हें सामाजिक अन्याय एवं शोषण से सुरक्षा प्रदान करेगा।
संविधान में जनजातियों के लिए दो प्रकार की व्यवस्था की गयी
है-संरक्षी एवं विकासी (Protective and Promotive Provisions) ।
संरक्षी प्रावधानों का उद्देश्य जनजाति हितों की सुरक्षा करना है और विकास
प्रावधानों का उद्देश्य उन्हें प्रगति के अवसर प्रदान करना है। इन दोनों प्रकार के
प्रावधानों का उल्लेख करने वाले संविधान के अंश इस प्रकार हैं :
(1) संविधान के बारहवें भाग के 275 अनुच्छेद के
अनुसार केन्द्रीय सरकार राज्यों को जनजातीय कल्याण एवं उनके उचित प्रशासन के लिए
विशेष धनराशि देगी।
(2) पन्द्रहवें भाग के 325 अनुच्छेद में कहा गया है
कि किसी को भी धर्म, प्रजाति, जाति एवं लिंग
के आधार पर मताधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा ।
(3) सोलहवें भाग के 330 व 332 अनुच्छेद में लोक सभा
एवं राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित
किये गये हैं।
(4) 335वाँ अनुच्छेद आश्वासन देता है कि सरकार
नौकरियों में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखेगी।
(5) 338वें अनुच्छेद में राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित
जातियों एवं जनजातियों के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति की व्यवस्था की गयी है।
यह अधिकारी प्रतिवर्ष अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा।
(6) पाँचवीं अनुसूची में जनजातीय सलाहकार परिषद् की
नियुक्ति की व्यवस्था है जिसमें अधिकतम बीस सदस्य हो सकते हैं, जिनमें से
तीन-चौथाई सदस्य राज्य विधान सभाओं के अनुसूचित जनजातियों के होंगे।
(7) अनुच्छेद 324 एवं 344 में राज्यपालों को जनजातियों
के सन्दर्भ में विशेषाधिकार प्रदान किये गये हैं।
(8) संविधान में कुछ अनुच्छेद ऐसे भी है जो मध्य प्रदेश, असम, बिहार, उड़ीसा, आदि के
जनजाति-क्षेत्रों के लिए विशेष सुविधा देने से सम्बन्धित हैं। इन लोगों के लिए नौकरियों
में प्रार्थना-पत्र देने एवं आयु सीमा में भी छूट दी गयी है। शिक्षण संस्थाओं में
भी इन्हें शुल्क से मुक्त किया गया है एवं कुछ स्थान इनके लिए सुरक्षित रखे गये
हैं।
संविधान में रखे गये विभिन्न प्रावधानों का उद्देश्य
जनजातियों को देश के अन्य नागरिकों के समकक्ष लाना है। उन्हें देश की मुख्य
जीवनधारा के साथ जोड़ना तथा एकीकरण करना है जिससे कि वे देश की आर्थिक एवं
राजनीतिक व्यवस्था में भागीदार बन सकें । संविधान के उपर्युक्त प्रावधानों पर
सरकार अपार धनराशि खर्च कर रही है। जनजातीय कल्याण हेतु सरकार द्वारा किये गये
प्रयत्नों का उल्लेख आगे के अध्यायों में किया गया है।
संवैधानिक प्रावधानों का जनजातियों पर प्रभाव-जनजातियों
के कल्याण हेतु भारतीय संविधान में किये गये विभिन्न प्रावधानों का इन पर
निम्नांकित प्रभाव पड़ा है-
(1) जनजातियों में शिक्षा का प्रचार हुआ है, इनमें राजनीतिक
जागृति आयी है,
(3)
उनके शोषण में कमी आयी है,
(4) ये
आधुनिकता के सम्पर्क में आये हैं,
(5)
इनमें अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का प्रभाव क्षीण हो रहा है,
(6) बेकारी
एवं गरीबी भी कुछ सीमा तक दूर हुई है,
(7) कई
जनजातीय लोग आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर अपने परम्परात्मक व्यवसायों के स्थान पर
डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, प्रशासक, प्रोफेसर एवं
व्यवसायी बन गये हैं,
(8)
पंचायत से लेकर संसद तक जनजातियों के व्यक्ति प्रशासन में भागीदार बने हैं,
(9)
इनके प्रति बरते जाने वाले भेद-भाव में बहुत कमी आयी है,
(10)
इनका सामाजिक सम्मान बढ़ा है।
धीरे-धीरे जनजातीय लोग देश की सामाजिक, आर्थिक और
राजनीतिक व्यवस्था के भागीदार बनते जा रहे हैं और वे देश की मुख्य धारा से जुड़
रहे हैं। यद्यपि संवैधानिक प्रावधानों का जनजातियों के कल्याण की दृष्टि से प्रभाव
अवश्य पड़ा है लेकिन जितना पड़ना चाहिए था,
उतना नहीं पड़ा है। सरकारी प्रयासों में व्यावहारिकता और सच्ची लगन का अभाव
रहा है। जनजातियों के कल्याण हेतु संवैधानिक प्रावधान काफी कुछ किये गये हैं परन्तु
अपनी अज्ञानता एवं पिछड़ेपन के कारण ये इन प्रावधानों का पूरा लाभ नहीं उठा पाये
हैं। प्रशासनिक कमियाँ भी जनजातीय कल्याण में बाधक रही हैं। इन सब बातों के
विस्तारपूर्वक विवरण के लिए अगले अध्याय में 'उचित जनजातीय नीति'
शीर्षक के अन्तर्गत वर्णित सामग्री देखिए।
Post a Comment
0 Comments