नैतिक शिक्षा का महत्त्व
[ भूमिका, नैतिक शिक्षा की आवश्यकता क्यों, नैतिक शिक्षा के अभाव के दुष्परिणाम, लाभ, उपसंहार ]
भूमिका :-हर प्रकार की धन-दौलत, सुख और वैभव नैतिकता (सच्चरित्रता) पर विराजमान हैं। महाभारत में प्रहलाद की कथा आती है। प्रहलाद अपने समय का बड़ा प्रतापी और दानी राजा हुआ है। उसने नैतिकता (शील) का सहारा लेकर इंद्र का राज्य ले लिया। इंद्र ने ब्राह्मण का रूप धारण करके प्रहलाद के पास जाकर पूछा, “आपको तीन लोकों का राज्य कैसे मिला?" प्रहलाद ने इसका कारण नैतिकता (शील) को बताया। इंद्र की सेवा से प्रसन्न होकर उसने वर मांगने के लिए कहा। इंद्र ने नैतिकता (शील) मांग लिया। वचन से बंधे होने के कारण प्रहलाद को नैतिकता (शील) देनी पड़ी। शील के जाते ही धर्म, सत्य, सदाचार, बल, लक्ष्मी सब चले गए, क्योंकि ये सब वहां ही रहते हैं जहां शील हो । भारत की नैतिकता (सच्चरित्रता) इतनी ऊँची थी कि सारा संसार अपने- अपने चरित्र के अनुसार शिक्षा प्राप्त करे, ऐसी घोषणा यहां की जाती थी।
अतीतकाल में भारत संसार का गुरु था। वह सोने की चिड़िया के नाम से पुकारा जाता था । नैतिकता का जब इतना महत्त्व है, तब उसे शिक्षा में से निकाल कर परे क्यों किया गया, समझ में नहीं आता ? क्योंकि नैतिकता (शील) ही मनुष्य का सब कुछ है। उसके बिना मनुष्य का कोई मूल्य नहीं ।
सच बोलना, चोरी न करना, अहिंसा, दूसरों के प्रति उदारता, शिष्टता, विनम्रता, सुशीलता आदि गुण नैतिकता में आते हैं। इनसे मानव जीवन शांत और सुखी बनता है। इनकी शिक्षा यदि हम अपने बच्चों को न दें। तो वे अच्छे नागरिक नहीं बन सकते। अच्छा नागरिक बनना ही तो अच्छी शिक्षा का उद्देश्य है। भिन्न-भिन्न परिवारों की शिक्षा भिन्न-भिन्न होती है। इसलिए नैतिकता (सच्चरित्रता) की शिक्षा केवल हम शिक्षा संस्थाओं में पाठ्यक्रम का अंग बना कर दे सकते हैं। इससे हम बच्चों का व्यक्तिगत (निजी), सामाजिक तथा राष्ट्रीय चरित्र बना सकते हैं। इसलिए पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा को स्थान अवश्य मिलना चाहिए।
नैतिक शिक्षा के अभाव के कारण ही आज छात्र- जगत् में अनुशासनहीनता का बोलबाला है। छात्रों द्वारा अध्यापकों के प्रति अनुचित व्यवहार, हड़तालों में भाग लेना, बसें जलाना, गंदी राजनीति में उतरना आदि कुपरिणामों का कारण भी नैतिक शिक्षा की कमी है। यही कारण है कि आज का शिक्षित व्यक्ति भी चरित्र से छूछा दिखाई देता है। शिक्षा को सभ्यता और संस्कृति की कसौटी नहीं माना जाता। नैतिक शिक्षा के बिना ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा मनुष्य को ऊँचा नहीं उठाती ।
धर्म और नैतिकता दोनों भिन्न हैं प्रत्येक धर्म का आधार नैतिकता है। सत्य भाषण, उदारता, शिष्टता (सज्जनता), सभ्यता, सुशीलता, हमदर्दी आदि गुण नैतिकता में आते हैं, पर धर्म में स्वार्थ का थोड़ा-सा प्रवेश होते ही वह संप्रदाय में बदल जाता है। इसी कारण संप्रदाय में कोई बुराई हो सकती है, पर नैतिकता में नहीं, क्योंकि कोई धर्म चोरी, ठगी, बुराई करने की आज्ञा नहीं देता। इसलिए पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा बिना प्रयत्न के दी जा सकती है।
नैतिकता से मनुष्य सुख और शांति प्राप्त करता है। राग-द्वेष, ईर्ष्या, कलह (लड़ाई-झगड़ा) उससे कोसों दूर रहते हैं। अपने कल्याण के साथ वह देश और समाज का कल्याण भी करता है। सच्चरित्र बनने से मनुष्य शूरवीर, धीर और निडर बनता है। शत्रु उसके सामने ठहर नहीं सकता। स्वास्थ्य और अच्छी बुद्धि भी नैतिकता से बनती है। कठिन-से- कठिन काम नैतिकता के बल पर पूरा किया जा सकता है। नैतिकता से मनुष्य अधिक-से-अधिक धन कमा सकता है। यह शिक्षा किसी कारखानें में नहीं दी जा सकती। यह तो पाठ्यक्रम में ज़रूरी विषय बनाने पर ही दी जा सकती है।
निष्कर्ष या उपसंहार:-
स्पष्ट हो जाता है कि नैतिक शिक्षा ही मानव को मानव बनाती है। नैतिक गुणों के बल पर ही मनुष्य वंदनीय बनता है। अतः शिक्षा- शास्त्रियों का यह कर्त्तव्य है कि वे पाठ्यक्रम तय करते समय नैतिक शिक्षा को आँखों से ओझल न करें।
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